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Jul 26, 2013

जर्रे-जर्रे में तुम!



हर कामयाबी अपने मायने
खो देती है,
जब ज़ेहन में तुम्हारा
नाम आता है!

हर रास्ता अपनी मंजिल
छोड़ देता है,
जब दूर क्षितिज पर तुम
खड़े मिलते हो!

हर फूल अपनी रंगत पर
इठलाना भूल उठता है,
जब तुम्हारे चेहरे का 
नूर सूरज चमका देता है.

ऐसा नहीं 
कामयाबी की मुझे चाह नहीं,
या मंजिलों की तलाश नहीं,
फूलों से भी कोई बैर नहीं मेरा
मैंने तो बस,
अपना हर कतरा तुम्हारे 'होने'
पर वार दिया है,
तुम नहीं तो कुछ भी और नहीं!


 मेरी यह कविता मध्य प्रदेश से प्रकाशित होने वाली बेहद खूबसूरत एवं साहित्यिक ई-पत्रिका "गर्भनाल" के जुलाई  २०१३ अंक में मेरी अन्य कवितायों के साथ पढ़ी जा सकती है (पृष्ठ ४६).

*Image Courtesy: Google

5 comments:

  1. बहुत खूब ... प्रेम की पराकाष्ठा के सामने सब कुछ गौण हो जाता है ...

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    1. कविता का गूढ़ समझने के लिए धन्यवाद दिगम्बर जी.

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  2. बहुत खूबसूरत..!!

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  3. बहुत खूबसूरती से व्यक्त किया!

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  4. सुन्दर शब्दों से सजाया है आपने मन की बातों को, बहुत ही गहन...सुन्दर !

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