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Jul 26, 2013

जर्रे-जर्रे में तुम!



हर कामयाबी अपने मायने
खो देती है,
जब ज़ेहन में तुम्हारा
नाम आता है!

हर रास्ता अपनी मंजिल
छोड़ देता है,
जब दूर क्षितिज पर तुम
खड़े मिलते हो!

हर फूल अपनी रंगत पर
इठलाना भूल उठता है,
जब तुम्हारे चेहरे का 
नूर सूरज चमका देता है.

ऐसा नहीं 
कामयाबी की मुझे चाह नहीं,
या मंजिलों की तलाश नहीं,
फूलों से भी कोई बैर नहीं मेरा
मैंने तो बस,
अपना हर कतरा तुम्हारे 'होने'
पर वार दिया है,
तुम नहीं तो कुछ भी और नहीं!


 मेरी यह कविता मध्य प्रदेश से प्रकाशित होने वाली बेहद खूबसूरत एवं साहित्यिक ई-पत्रिका "गर्भनाल" के जुलाई  २०१३ अंक में मेरी अन्य कवितायों के साथ पढ़ी जा सकती है (पृष्ठ ४६).

*Image Courtesy: Google

Jul 17, 2013

"अंत तक अकेले है"



अंत तक अकेले है सब यहाँ 
कोई साथ नहीं अंतिम पड़ाव तक 
कोई नहीं पकड़े रहता ऊँगली हमेशा,

इस कठोर कर्मभूमि में किसान हम 
अकेले ही बीज बोना अकेले ही पाना,
कोई नहीं रहता साथ कर्मों के
ज़िम्मेदार हम स्वयं अपने लिए 
अपनी खुशियाँ अपने आँसू के लिए

विचारों और कार्यों के निर्माता हम 
कोई कृष्ण सारथी बन नहीं आने वाला 
अपना रथ खुद अग्रसर करना हमें 
कोई साथ नहीं रहता दिल के 
आत्मा की तो बात ही नहीं

हां,
अंत तक अकेले है सब यहाँ 
कोई साथ नहीं इन साँसों के,
इन जज्बातों के,
इन कर्मों के,
हां
अंत तक अकेले है सब यहाँ .....
  
 मेरी यह कविता मध्य प्रदेश से प्रकाशित होने वाली बेहद खूबसूरत एवं साहित्यिक ई-पत्रिका "गर्भनाल" के जुलाई  २०१३ अंक में मेरी अन्य कवितायों के साथ पढ़ी जा सकती है (पृष्ठ ४६).

*Image Courtesy: Google

Jul 8, 2013

अस्तित्व को तलाशती...




कपड़ो की तह में 
फुल्कों की नरमाई में 
ढूंढ़ती खुद को वो।

कभी कपड़ो की धुलाई में, 
कभी सब्जी के नमक में,
कभी खीर की मिठास में,
कभी रायते की मिर्च में 
जीवन अपना 'सजाती' वो।

कभी घर को निखारने में,
कभी घरवालों को संवारने में,
कभी किताबों को जमाने में,
कभी लिहाफ को चढ़ाने में 
नियम अपना 'पाती' वो।

कभी शब्दों के जाल में,
कभी पन्नों के थाल में,
कभी कलम की स्याही में,
कभी रचना के भेदों में
अस्तित्व अपना 'तलाशती' वो


मेरी यह कविता रायपुर, छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होने वाली खूबसूरत पत्रिका "उदंती" के मई २०१३ अंक में प्रकाशित हुई है।

Image courtesy: Google