अभिमन्यु,
शायद दूसरा नाम है मेरा!
अभिमन्यु ही तो बन रही हूँ,
अभिमन्यु ही तो थी.
तुझसे मिलने पे समाई तुझमें
हर कतरा-कतरा, हर क्षण, हर पल
और आज,
तुझसे जुदा हो कर भी फसीं हूँ चक्रव्यूह में.
कैसे निकलूं यादों के कौरवों से बाहर,
कैसे तोड़ दूँ स्पर्श-स्पंदन-रूह के रिश्ते
लगता है, जीवन के इस लम्बे-निर्मम चक्र में
अभिमन्यु ही शायद बन रह जायेगा नाम मेरा!
I penned this poem for the 'शब्दों की चाक पर' program which is aired twice in a month on RadioPlayBackIndia. Click here to listen to this poem and many other poems based on the theme 'मेरे मन का अभिमन्यु'-