सफ़ेद पर्वतों पर
जहाँ तुमने नारंगी आकाश
की खूबसूरती बिखरते देखी,
क्या मैं याद आयी तुम्हें?
श्वेत धवल जमे पानी पर
जहाँ रखे तुमने अपने कदम
जहाँ साँसों में भरी तुमने खूबसूरती,
क्या मैं याद आयी तुम्हें?
जिंदगी में रंग स्याह हो
या
अलसाए से निकलते सूरज
की मद्धम लौ ,
हो पर्वतों का साथ
या
गहरे समुद्र का फेन
...हर जगह मैं तुम्हे सोचती,
तुम्हे साकारती
तुम्हे ही अपने अंतस-
अपने 'ब्राह्म' में पाती ...
...इसीलिए क्या तुम्हे 'वहाँ ' मेरी याद आई !
I penned this poem being away from my husband. While I am in India and he on a vacation (being in US) to Mount Shasta (http://en.wikipedia.org/wiki/Mount_Shasta) in California! He being a passionate and amazing photographer captured lovely clicks (the one I have put is his) of the place with snow covered mountains, sunset & sunrise with numerous beautiful shades of orange! I could relish the divinity of the place in his photos and with my words only tell him how much I missed being with him. It's not about the place but the essence of being together...