तुम्हारे बारें में क्या कहूँ,
क्या लिखूं
जो अब तक नहीं कहा
जो अब तक नहीं लिखा!
साँसों में उठते तूफ़ान
से लेकर,
धड़कन में बसा उन्माद
सभी तो तुम हो!
कल तक नीले आसमान का
विस्तार थे,
तो आज इन्ही के बादलों का
स्याह रूप भी तो तुम हो!
फूलों की मोहक खुशबू
में रची बसी तुम्हारी याद,
तो तितलियों के हज़ार रंगों
में मेरा रंग तो तुम हो!
तमाम बातों एहसासों
में आदि-अंत हो तुम,
जाने-अनजाने, गाहे-बगाहे
हर शब्द की आत्मा में तो तुम हो!
कहो,
बतलाओ
दुनिया के इस अनंत स्वरुप
में जब तुम हो
कैसे कहूँ शब्दों को बाँध
लिया मैंने,
के अब बस परिभाषित कर दिया
मैंने,
कुछ और नहीं मेरे पास
कुछ और नहीं मेरे हाथ
क्यूंकि
हर लकीर के हर हिस्से में कहीं तो तुम हो!
This poem describes longing and pain when someone beloved is far! The presence or even a tiny glimpse of the beloved brings joy and happiness immeasurable. To surprise of many of you, I have written this poem in memory of something I used to be happy with- my work! Currently trying to find something meaningful to do in life, to accomplish something...this poem, these words shared my burden once again to bring back my hopes because the power to be happy and the feeling to feel accomplished, resides in me, just like when I say- हर लकीर के हर हिस्से में कहीं तो तुम हो! ....the beloved is there, everywhere and hence the words can never finish their efforts describing him!
The photo has been a courtesy of my good friend and photographer, Achin- (http://www.achingrover.com/)