मैंने उन गलियों का फेरा नहीं किया
जिन पर उगे नीम की निम्बोलियाँ
फोड़ते पिचकाते बिताई हमने
जाने कितनी जेठ की दोपहरें।
लाखों अरबों लम्हे बीत गये
नहीं चखा मोहब्बत का वो जाम,
जानते हो न
तुम ही थे वो स्वाद
वो मधुशाला का मधु
और मेरा प्याला।
बीती सदियाँ,
गर्मियों में तुम्हारे
पैरों का मखमल
नहीं टकराया मेरे पैरों से,
बहुत रातें बीत गयी
मैंने नहीं ओढ़ा तुम्हें
जाने कितनी शीत ऋतुयें आई-गई
गरमाई जाने कहाँ गुम हुई….
बीतती रही घड़ियाँ
गुजरती हुई निकली सदियाँ
मैं आज भी वही खड़ी
लेकर हाथ में खाली प्याला
शायद कभी वो रस फिर से
होठों तक आये
जिसका स्वाद होठों से रूह तक
छूकर सदियाँ मीठी कर गया।
Image Courtesy: Google Images, a Painting by Hemant Majumdar.