वो जो बड़ा-सा दरवाज़ा था
जिसमें दमकते थे लाखों सूरज हर पल में
जिसमें दिखाई देता था चाँद का शीतल अक्स
जिसमें झरने की कल-कल, समुद्र का फेन दोनों ही साथ निभाते थे,
जिसमें हाथों की लकीरों के कोई मायने न थे
बस था हौसला, विश्वास और नित-नयी उम्मीदें।
मालूम पड़ता है
वो स्रोता किसी मायूस हुए दरीचे-सा वीरान पड़ा है
अब कोई वहाँ आता जाता नहीं,
कोई पुकार, कोई हँसी-मुस्कराहट नहीं,
कोई रौशनी नहीं जन्मती हरी दूब-सी कोमलता,
सूखे पत्तों पर भी कोई सरसराहट नहीं,
शांत, वीरान जैसे चाँद हो, एकदम अकेला। ..
हाँ, अम्मा के घर का दरवाज़ा बंद हो रहा
हर दिन, जाती हुई साँसों-प्राणों जैसा
वह घर जहाँ कईओं ने जन्म लिया, रूप-सीरत संजोई
आज अम्मा उसी घर के छोटे, सीलन भरी लकड़ी के नम दरीचे पर
खड़ी ताक रही है शून्य को,
न जाने क्या मांग रही है,
स्वयं के लिए एक नया द्वार या
दरीचे से ही आ जाये एक छटाँक भर रौशनी!
sundar rachna shaifali
ReplyDeleteमां के लिये जब कहीं कुछ पढ़ा मन भावुक ही हुआ है ...और आज भी इस रचना को पढ़कर ऐसा ही महसूस किया ...आभार इस रचना प्रस्तुति का ।
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