जिस्मों की सरगोशी में
पिघले मन बहकाते रहे तन
आहिस्ता आहिस्ता सरकती रही रात...
छूअन के स्पंदन में
साँस लेते रहे मदहोश ज़ज्बात
आहिस्ता आहिस्ता मुस्काते रहे लब...
सूरज के नारंगी विस्तार में
यादें रात-की महकी हरश्रृंगार-सी
आहिस्ता आहिस्ता गुलदस्ता बने हम...
गिरफ्तार हाथों की लकीरों में
सपनों की लड़ियों से लदा संसार
आहिस्ता आहिस्ता जीवन बने हम...
Image Courtesy: Google Images
nice shaifali :) really liked the way it rhymes and the ending is superbly put up ... gr8 going
ReplyDeleteशैफाली जी आपकी कविता के बारे में कुछ भी कहने को जी नहीं चाहता.. बस ऐसा लगता है कि आँखें बंद करके उसे उतारते चले जाएँ अपने मन की अटल गहराइयों तक!!!
ReplyDeleteLiked it a lot Shaifali you have made the romance so surreal.
ReplyDeleteSo Beautiful !!!!
ReplyDeleteBahut dinon ke baad aapke blog par aana hua..ek lambe arse se aapki koi rachna nahi padhi..aaj kuch ek rachnayen padhin to aapke lekhan ki shaili aur purani rachnayen yaad aa gayin..koshish rahegi ke samay samay par upastithi de sakun...bahut bahut abhar.
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