वो क्या इशारा है
मैं समझ नहीं पाती,
एक पल की रवानी
एक पल का ठहराव,
एक पल सूरज का ओज़
एक पल चाँद-सा ठंडापन ...
न मालूम,
कहाँ के लिए थामी ऊँगली उसने
मैं समझ नहीं पाती,
एक पल पर्वतों की उचाईं
एक पल समुद्र-सी गहराई,
एक पल काटों की चुभन
एक पल गुलाब-सी मादकता ...
ओ' कान्हा मेरे
समझ से परे
कौन-सा है खेल खेलता तू,
बाँह पकड़ घुमाता मुझे
तो कभी छोड़ता निष्प्राण
मैं समझ नहीं पाती ...
... उलझाव-सुलझाव यही दर्शाते
मगर,
डुबाया, तो तैर सकने के लिए
गिराया, तो उठ खड़े होने के लिए
छोड़ा, तो स्वयं को पा जाने ले लिए
बस इतना ही समझ पाती मैं।
This is a poem I resonate my entire being with. It shows my questions about the ever changing life and yet, the Faith in HIM. The poem became a part of November-2013 हरिगंधा magazine, a publication of हरियाणा साहित्य अकादमी।
Image Courtesy: Google
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Beautiful poem!
ReplyDeleteThanks Beloo. Glad you liked it.
ReplyDeleteUttam!!! Ati Uttam!!
ReplyDeleteवाह ! बहुत ही सुंदर सृजन...!
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