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कुछ लोग रहते है उस दीवार के पीछे
होते है मेरी ही तरह बने हुए,
करता है शिरकत लाल ही खून उनकी रगों में,
बसते है ख्वाब भी उनकी आँखों में,
होते है उनके भी कुछ दुःख दर्द, आंसूँ और गम,
हाँ! कुछ लोग रहते है उस दीवार के पीछे
होते है मेरी ही तरह बने हुए.
है वो भी किसी राखी का रेशम,
किसी घर का सुनहरा दीपक
किसी के दिल का आराम होते है वो भी
पर मालूम न चल सका क्यों दी बंदूके उन्हें?
चाहते तो थे वे भी इक मिला जुला संसार
फिर क्यों?
आखिर क्यूँ बदल दिया उनका रास्ता चल पड़ने के पहले ही?
हाँ! कुछ लोग रहते है उस दीवार के पीछे
होते है मेरी ही तरह बने हुए.
'उन' पीछे वालों को थमा तो दी विनाश-सामग्री
पर न सोचा क्या उन्होंने न गाया कोई सुखी गान?
क्या नहीं स्वर दिया विश्व एकता के भावों को?
नहीं हुई तमन्ना फूलों और भवरों की उन्हें?
फिर क्यों?
आखिर क्यूँ बदल दिया उनका रास्ता चल पड़ने के पहले ही?
हाँ! कुछ लोग रहते है उस दीवार के पीछे
होते है मेरी ही तरह बने हुए.
बहुत कुछ कहती है आपकी ये कविता! बहुत पसंद आई!
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