Jun 19, 2012

'मानसून की आहट'


हौले से इक दिन
जो अम्बर हुआ स्याह 
और बादलों में हुआ स्पंदन 
बरस पड़ी मेघा झर-झर,
एक-एक उस बूँद ने कहीं भुझाई
थकहाल तन की तपन
तो कहीं भिगोया मन तर-बतर!

कहीं बच्चों के स्वर गूंजे 
और चलने लगी कागज की
नन्ही बुलंद कश्तियाँ ,
तो कहीं कपड़े समेट
भागी गृहणियाँ अपने संसार में.

कहीं मुस्कुराएँ हरे पत्तों 
के स्वरुप, खिलीं लतायें
तो कहीं फैली खेतिहरों के
चेहरे पर तसल्ली.

मानसून का यह आगमन...
... है मायने सभी के अपने
है अपने ही आनंद
मगर खिड़की से बाहर जो मैंने झाकाँ
सोचा यह मानसून की है आहट
या अपने अन्दर उठने वाले
सागर का तूफ़ान!

सपने बुने थे किसी ख्वाब में एक बार 
पकड़ तुम्हारा हाथ
फ़ेक उस रंग-बिरंगी छतरी को
भीगूँगी जी-भर तुम्हारे साथ,
मुस्कुराउँगी आत्मा तक पोर-पोर
और
चलूंगी फलक तक बादलों पर 
तुम्हारे साथ!

सच, यह मानसून की है आहट
या तुम्हारी?


यह कविता मैंने Facebook group "शब्दों की चाक पर" के लिए theme 'मानसून की आहट' के लिए लिखी थी। यह एक तरह का contest है और चुनी हुई कवितायेँ (कवियत्री रश्मि प्रभाजी द्वारा) radioplaybackindia पर recite की जाती है।  मेरी यह कविता इस लिंक पर सुनी जा सकती है (around 16minutes playback time)-


(मानसून की आहटें और कवि मन की चटपटाहटें)