Sep 19, 2013
Sep 18, 2013
"नारी"
तेरा सुर,
हर शब्द में
तेरा अर्थ,
हर झंकार में
तेरी सीरत,
हर मूरत में
तेरी सूरत .
हर अग्नि में
तेरा सूरज,
हर सागर में
तेरा शोर,
हर दरख़्त में
तेरा बसेरा,
हर बादल में
तेरी बरखा .
हर पन्ने में
तेरी खुशबू,
हर लेखनी में
तेरा भाव,
हर मंजिल में
तेरी जुस्तजूं,
हर प्रार्थना में
तेरी भक्ति.
हर स्पर्श में
तेरा प्रेम,
हर स्पंदन में
तेरा एहसास,
हर धड़कन में
तेरा नाम,
हर जन्म में
तेरा साथ.
विश्व हिंदी संस्थान की मासिक ऑनलाइन पत्रिका - प्रयास ने जुलाई २०१३ में नार्थ अमेरिका में निवास कर रहे हिंदी कवियों की रचनायें प्रकाशित की. मेरी यह कविता उसी अंक में शामिल हुई.
Aug 8, 2013
Silence!
The window's rectangle
the books spread out
the room's pleasant
& I, in silence!
The window stained with
images of us,
the books reading letters with
nectared-ink,
the room colored with
moments named togetherness
and silence...
T'is silence filled with
texture of 'love',
love, I found in You!
*Image Courtesy: Google
Aug 1, 2013
Jul 26, 2013
जर्रे-जर्रे में तुम!

हर कामयाबी अपने मायने
खो देती है,
जब ज़ेहन में तुम्हारा
नाम आता है!
हर रास्ता अपनी मंजिल
छोड़ देता है,
जब दूर क्षितिज पर तुम
खड़े मिलते हो!
हर फूल अपनी रंगत पर
इठलाना भूल उठता है,
जब तुम्हारे चेहरे का
नूर सूरज चमका देता है.
ऐसा नहीं
कामयाबी की मुझे चाह नहीं,
या मंजिलों की तलाश नहीं,
फूलों से भी
कोई बैर नहीं मेरा
मैंने तो बस,
अपना हर कतरा तुम्हारे 'होने'
पर वार दिया है,
तुम नहीं तो कुछ भी और नहीं!
*Image Courtesy: Google
Jul 17, 2013
"अंत तक अकेले है"
अंत तक अकेले है सब यहाँ
कोई साथ नहीं अंतिम पड़ाव तक
कोई नहीं पकड़े रहता ऊँगली हमेशा,
इस कठोर कर्मभूमि में किसान हम
अकेले ही बीज बोना अकेले ही पाना,
कोई नहीं रहता साथ कर्मों के
ज़िम्मेदार हम स्वयं अपने लिए
अपनी खुशियाँ अपने आँसू के लिए।
विचारों और कार्यों के निर्माता हम
कोई कृष्ण सारथी बन नहीं आने वाला
अपना रथ खुद अग्रसर करना हमें
कोई साथ नहीं रहता दिल के
आत्मा की तो बात ही नहीं।
हां,
अंत तक अकेले है सब यहाँ
कोई साथ नहीं इन साँसों के,
इन जज्बातों के,
इन कर्मों के,
हां,
अंत तक अकेले है सब यहाँ .....
*Image Courtesy: Google
Labels:
Hindi poem,
Life,
Spiritual
Location:
Milpitas, CA, USA
Jul 8, 2013
अस्तित्व को तलाशती...
कपड़ो की तह में
फुल्कों की नरमाई में
ढूंढ़ती खुद को वो।
कभी कपड़ो की धुलाई में,
कभी सब्जी के नमक में,
कभी खीर की मिठास में,
कभी रायते की मिर्च में
जीवन अपना 'सजाती' वो।
कभी घर को निखारने में,
कभी घरवालों को संवारने में,
कभी किताबों को जमाने में,
कभी लिहाफ को चढ़ाने में
नियम अपना 'पाती' वो।
कभी शब्दों के जाल में,
कभी पन्नों के थाल में,
कभी कलम की स्याही में,
कभी रचना के भेदों में
अस्तित्व अपना 'तलाशती' वो।
मेरी यह कविता रायपुर, छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होने वाली खूबसूरत पत्रिका "उदंती" के मई २०१३ अंक में प्रकाशित हुई है।
Image courtesy: Google
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